औरंगाबाद, 14 नवंबर 2024- औरंगाबाद ईस्ट विधानसभा सीट पर चुनावी माहौल गरमा गया है, जहाँ इस्लामिक स्कॉलर मौलाना सज्जाद नौमानी ने समाजवादी पार्टी (सपा) के प्रत्याशी अब्दुल गफ़्फ़ार क़ादरी को वोट देने की अपील की है। इस अपील ने ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) के कार्यकर्ताओं को नाराज कर दिया है जो उनके खिलाफ अमर्यादित टिप्पणियाँ कर रहे हैं।
AIMIM के प्रत्याशी और पूर्व सांसद इम्तियाज जलील को वोट देने की अपील न करने के कारण, कुछ कार्यकर्ता मौलाना नौमानी को 'नकली मुसलमान' और 'नकली उलेमा' तक कह रहे हैं। यह प्रतिक्रिया सोशल मीडिया पर व्यापक रूप से देखी जा रही है, जहाँ मौलाना को आरएसएस का दलाल या विपक्षी पार्टियों का गुलाम कहा जा रहा है।
AIMIM समर्थकों के अनुसार, एक असली मुसलमान वो है जो उनकी पार्टी को वोट देता है। लेकिन, इस मुद्दे पर मौलाना सज्जाद नौमानी का समर्थन करने वाले लोगों का कहना है कि यह पूर्वाग्रह से ग्रस्त दृष्टिकोण है। उनके अनुसार, मौलाना नौमानी ने क़ादरी को समर्थन देने की अपील इसलिए की क्योंकि क़ादरी ने 2014 और 2019 के चुनावों में AIMIM के टिकट पर चुनाव लड़ा था और उन्होंने दोनों बार क्रमशः 60,000 और 80,000 वोट हासिल किए थे, हालांकि बहुत कम अंतर से हारे थे।
2014 में, क़ादरी को 60,000 मत मिले जबकि भाजपा प्रत्याशी अतुल सवे को 64,000 मत मिले, जिससे क़ादरी महज 4,000 मतों से हारे। 2019 में सवे को 94,000 मत मिले जबकि क़ादरी को 80,000 मत मिले, जिससे उन्हें 14,000 मतों के अंतर से हार का सामना करना पड़ा। AIMIM की ओर से इस बार क़ादरी को टिकट न देने के बाद उन्होंने सपा का दामन थामा और इस बार वे सपा के प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ रहे हैं।
मौलाना सज्जाद नौमानी का कहना है कि उन्होंने अब्दुल गफ़्फ़ार क़ादरी को समर्थन देने की अपील इसलिए की क्योंकि क़ादरी के पास जीतने की अच्छी संभावना है और उन्होंने क्षेत्र में काफी संघर्ष किया है। लेकिन AIMIM के समर्थक इसे मौलाना की ओर से मुस्लिम एकता के खिलाफ कार्रवाई मान रहे हैं, जिसके परिणामस्वरूप उनके खिलाफ सोशल मीडिया पर तीखी टिप्पणियाँ की जा रही हैं।
इस विवाद ने एक बार फिर से यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या राजनीतिक समर्थन देने पर मुस्लिम समुदाय की धार्मिक पहचान से जुड़े होने का मुद्दा उठाया जाना चाहिए या नहीं। यह मामला राजनीतिक वफादारी और सांप्रदायिक हितों के बीच संतुलन को दर्शाता है, जिसका प्रभाव सिर्फ चुनावी परिणामों पर ही नहीं, बल्कि समुदाय की आंतरिक एकता पर भी पड़ सकता है।
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